| काय रे देवा... |
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| आता पुन्हा पाऊस येणार |
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| आकाश काळ निळ होणार |
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| मग मातीला गंध सुटणार |
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| मग मध्येच वीज पडणार |
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| मग तुझी आठवण येणार |
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| काय रे देवा... |
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| मग ती आठवण कुणाला दाखवता नाही येणार |
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| मग मी ती लपविणार |
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| मग लपवूनही ते कुणालातरी कळावस वाटणार |
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| मग ते कुणीतरी ओळखणार |
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| मग मित्र असतील तर रडणार |
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| नातेवाईक असतील तर चिडणार |
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| मग नसतच कळल तर बर अस वाटणार |
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| आणि या सगळ्याशी तुला काहीच घेण देण नसणार.. |
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| मग त्याच वेळी नेमका दूर रेडिओ चालू असणार |
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| मग त्यात एखाद जुन गाण लागलेल असणार |
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| मग त्याला एस. डी . वर्मन नी चाल दिलेली असणार |
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| मग ते साहीर नी गायलेल असणार |
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| मग ते लतानी गायलेल असणार |
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| मग तू ही नेमका आत्ता हेच गाण एकत असशील तर.. असा प्रश्न पडणार |
| मग उगाच छातीत काहीतरी हूर हूरणार |
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| मग ना घेण ना देण |
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| पण फूकाचे कंदील लागणार |
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| काय रे देवा... |
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| मग खिडक्यांचे गज थंडगार होऊन जाणार |
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| मग त्याला आकाशाची आसव लगडणार |
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| मग खिडकीत घट्ट बांधून ठेवलेल्या आपल्या पालथ्या मुठीवर ते टपटपणार |
| मग पाच फूट पाच इंच देह अपुरा अपुरा वाटणार |
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| मग ऊर फुटून जावस वाटणार |
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| छाताडातून ह्रदय काढून त्या शुभ्र धारांखाली धरावस वाटणार |
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| मग सारच कस मुर्खासारख उत्कट उत्कट होत जाणार |
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| पण तरीही श्वासांची लय फक्त कमी जास्त होत जाणार |
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| बंद नाही पडणार |
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| काय रे देवा... |
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| पाऊस पडणार |
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| मग हवा हिरवी होणार |
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| मग पानापानात हिरवळ दाटणार |
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| मग आपल्या मनाच पिवळ पान मोडून हिरव्यात शिरू पाहणार |
| पण त्याला ते नाही जमणार |
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| मग त्याला एकदम खर काय ते कळणार |
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| मग ते ओशाळणार |
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| मग पुन्हा शरीराशी परत येणार |
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| सरदी होऊ नये म्हणून देहाला वाफ घ्यायला सांगणार |
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| चहाच्या पाण्यासाठी फ्रिजमध्ये कूडंमूडलेल आल शोधणार |
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| एस . डी , च गाणही तोपर्यंत संपलेल असणार |
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| रेडिओचा स्टॉक भरलेला असणार |
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| मग तिच्या जागी ती असणार |
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| मग माझ्या जागी मी असणार |
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| कपातल वादळ गवती चहाच्या चवीने पोटात निपचीत झलेल असणार |
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| पाऊस गेल्या वर्षी पडला |
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| पाऊस यंदाही पडतो |
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| पाऊस पुढल्या वर्षीही पडणार |
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| काय रे देवा... |