मी हजार चिंतांनी हे डोके खाजवतो, |
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तो कट्ट्यावर बसतो, घुमतो, शीळ वाजवतो. |
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मी जुनाट दारापरी किरकिरा बंदी, |
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तो सताड उघड्या खिडकीपरी स्वछंदी, |
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मी बिजागरीशी जीव गंजवीत बसतो, |
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तो लंघुन चौकट पार निघाया बघतो. |
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डोळ्यात माझीया सुर्याहुनी संताप, |
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दिसतात त्वचेवर राप उन्हाचे शाप, |
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तो त्याच उन्हाचे झगझगीत लखलखते, |
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घड्वून दागिने सुर्यफुलांपरी झुलतो. |
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मी पायीरुतल्या काचांवरती चिडतो, |
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तो त्याच घेऊनी नक्षी मांडून बसतो, |
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मी डाव रडीचा खात जिंकतो अंती, |
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तो स्वच्छ मोकळ्या मुक्त मनने हरतो. |
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मी आस्तिक मोजत पुण्याईची खोली, |
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नवसांची ठेवून लाच लावतो बोली, |
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तो मुळात येतो इच्छा अर्पून सार्या |
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अन धन्यवाद देवाचे घेवून जातो. |
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मज अध्यात्माचा रोज नवा शृंगार, |
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लपतो न परि चेहरा आत भेसूर, |
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तो फक्त ओढतो शाल नभाची तरीही, |
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त्या शाम निळ्याच्या मोरपीसापरि दिसतो |